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सिविल कानून
CPC की धारा 47 के तहत आक्षेप
« »20-Feb-2024
संजय अग्रवाल बनाम राहुल अग्रवाल एवं अन्य "सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 47 के तहत आक्षेप माध्यस्थम् पंचाट के प्रवर्तन के लिये निष्पादन कार्यवाही में संधार्य नहीं हैं।" न्यायमूर्ति आलोक माथुर |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संजय अग्रवाल बनाम राहुल अग्रवाल एवं अन्य के मामले में माना है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 47 के तहत आक्षेप माध्यस्थम् पंचाट के प्रवर्तन के लिये निष्पादन कार्यवाही में संधार्य नहीं हैं।
संजय अग्रवाल बनाम राहुल अग्रवाल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- इस मामले में, श्री किशोरी लाल अग्रवाल व संजय अग्रवाल (पुनरीक्षणकर्त्ता) ने 19 दिसंबर, 1986 को एक समझौता किया, जिसमें कहा गया कि संपत्ति का विंग "A" विशेष रूप से श्री किशोरी लाल अग्रवाल द्वारा विकसित किया जाएगा और विंग "B" विशेष रूप से पुनरीक्षणकर्त्ता द्वारा विकसित किया जाएगा।
- 31 दिसंबर, 2007 को पुनरीक्षणकर्त्ता के पिता श्री मोतीलाल अग्रवाल की मृत्यु हो गई, उनके कानूनी उत्तराधिकारियों में उनकी पत्नी, बेटे - संजय अग्रवाल (पुनरीक्षणकर्त्ता) और राहुल अग्रवाल (विपरीत पार्टी नंबर 1) और एक बेटी थे।
- श्री मोतीलाल अग्रवाल की मृत्यु के बाद, उनकी संपत्ति और संपत्ति के बँटवारे को लेकर परिवार के बीच विवाद हो गया।
- यह बताया गया है कि श्री अनिरुद्ध मिथल पुनरीक्षणकर्त्ता के पिता के मित्र थे और उन्होंने परिवार के सदस्यों के बीच विवादों एवं मतभेदों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने के प्रयासों में हस्तक्षेप किया।
- उनके हस्तक्षेप पर ही कई बैठकों, विचार-विमर्श और विभिन्न दस्तावेज़ों के अध्ययन के बाद पंचाट/पारिवारिक समझौता किया गया।
- विपक्षी नंबर 1 ने ज़िला न्यायाधीश के न्यायालय में माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 9 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसे खारिज़ कर दिया गया।
- पुनरीक्षणकर्त्ता ने CPC की धारा 47 के तहत अन्य बातों के साथ-साथ यह कहते हुए अपने आक्षेप दर्ज किये कि पार्टियों के बीच कोई माध्यस्थम् समझौता निष्पादित नहीं किया गया था और कथित पंचाट माध्यस्थम् कार्यवाही का परिणाम नहीं था तथा इसलिये इसे निष्पादित नहीं किया जा सकता था।
- विपक्षी नंबर 1 द्वारा पहली अपील इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष A & C अधिनियम की धारा 9 के तहत उनके आवेदन की अस्वीकृति के विरुद्ध दायर की गई।
- उच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायाधीश को आदेश की संसूचना की तिथि से 3 महीने की अवधि के भीतर आक्षेपों के साथ निष्पादन के लिये आवेदन का निपटारा करने का निर्देश दिया।
- ज़िला न्यायाधीश ने पुनरीक्षणकर्त्ता द्वारा प्रस्तुत आपत्तियों को खारिज़ कर दिया है और उक्त आदेश के विरुद्ध वर्तमान पुनरीक्षण उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किया गया है।
- उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका खारिज़ कर दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति आलोक माथुर ने कहा कि CPC की धारा 47 के तहत आक्षेप माध्यस्थम् पंचाट के प्रवर्तन के लिये निष्पादन कार्यवाही में संधार्य नहीं हैं। यह माना गया कि एक माध्यस्थम् पंचाट, जिसे "न्यायालय" द्वारा जारी नहीं किया जा रहा है, CPC की धारा 2(2) में उल्लिखित डिक्री में परिभाषित नहीं है।
- आगे यह माना गया कि ज़िला न्यायाधीश ने CPC की धारा 47 के तहत आक्षेपों को खारिज़ करने में अपने अधिकार क्षेत्र का सही उपयोग किया और पुनरीक्षणकर्त्ता की दलीलों में तर्क का अभाव था।
इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
CPC की धारा 47:
परिचय:
- यह धारा डिक्री निष्पादित करने वाले न्यायालय द्वारा निर्धारित किये जाने वाले प्रश्नों से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
- (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच उत्पन्न होते हैं, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित हैं, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, न कि पृथक् वाद द्वारा, अवधारित किये जाएँगे।
- (2) सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन अधिनियम, 1976) द्वारा छोड़ा गया।
- (3) जहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं है वहाँ ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजनों के लिये अवधारित किया जाएगा।
- स्पष्टीकरण I- वह वादी जिसका बाद खारिज़ हो चुका है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध बाद खारिज़ हो चुका है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये बाद के पक्षकार हैं।
- स्पष्टीकरण II- (a) डिक्री के निष्पादन के लिये विक्रय में संपत्ति का क्रेता इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस वाद का पक्षकार समझा जायेगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है और (b) ऐसी संपत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्ज़ा देने से संबंधित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी दृष्टि से संबंधित प्रश्न समझे जाएँगे।
निर्णयज विधि:
- भारत पंप्स एंड कंप्रेसर्स बनाम चोपड़ा फैब्रिकेटर्स (2022) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि माध्यस्थम् पंचाट CPC में डिक्री की परिभाषा और अर्थ के तहत शामिल नहीं है तथा इसलिये ऐसे पंचाट के निष्पादन में कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है।
CPC की धारा 2(2):
- धारा 2 (2) CPC डिक्री से ऐसे न्यायनिर्णयन की प्ररूपिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है जो, जहाँ तक कि वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्यायालय से संबंधित है, वाद में के सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के संबंध में पक्षकारों के अधिकारों का निश्चयक रूप से अवधारण करता है और वह या तो प्रारंभिक या अंतिम हो सकेगी। यह समझा जाएगा कि इसके अंतर्गत वादपत्र का नामंरजूर किया जाना और धारा 144 के भीतर के किसी प्रश्न का अवधारण आता है, किंतु इसके अंतर्गत,—
(a) न तो कोई ऐसा न्यायनिर्णयन आएगा जिसकी अपील, आदेश की अपील की भाँति होती है; और
(b) न व्यतिक्रम के लिये खारिज़ करने का कोई आदेश आएगा। - स्पष्टीकरण: डिक्री तब प्रारंभिक होती है जब वाद के पूर्ण रूप से निपटा दिये जा सकने से पहले आगे और कार्यवाहियाँ की जानी हैं। वह तब अंतिम होती है जब कि ऐसा न्यायनिर्णयन वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है। वह भागतः प्रारंभिक और भागतः अंतिम हो सकेगी।
A & C अधिनियम की धारा 9:
- यह अधिनियम न्यायालय द्वारा अंतरिम उपायों आदि से संबंधित है।
- इस अधिनियम के तहत, पक्षकार माध्यस्थम् कार्यवाही से पूर्व, या उसके दौरान, या पंचाट पारित होने के बाद किसी भी समय, लेकिन इसके लागू होने से पूर्व अंतरिम अनुतोष पाने के लिये इस अधिनियम की धारा 9 के तहत न्यायालय से संपर्क कर सकते हैं।
- अंतरिम अनुतोष अधिनियम के तहत प्रदान की गई एक आवश्यक सुरक्षा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी दावा जो कोई पक्षकार माध्यस्थम् में उठाना चाहता है, उसे सुरक्षा, गारंटी या अन्य उपायों के रूप में संरक्षित किया जाता है, मामले-दर-मामले मूल्यांकन के आधार पर, जैसा न्यायालय उचित समझे।